मुगल चित्रकला
मुगल चित्रकला
भारत में चित्रकला के विकास की एक समृद्ध परंपरा रही है और मुगलकालीन चित्रकला शैली ने इसे और भी समृद्धतम बना दिया है । मुगल चित्रकला की वास्तविक शुरूआत अकबर के काल में होती है । इससे पूर्व बाबर संभवत: समयाभाव के कारण कला के प्रति अपनी अभिरुचि प्रदर्शित नहीं कर पाया था किन्तु, हुमायूँ ईरान से दो प्रसिद्ध चित्रकार मीर सैयद अली और अबदुस्समद को अपने साथ भारत लाया था । अकबर ने इन्हीं चित्रकारों के संरक्षण में एक चित्रशाला विभाग की स्थापना की ।
अकबर कालीन चित्रकला की प्रमुख धाराएँ :
(1) ऐतिहासिक अथवा जीवनीपरक कृतियों का चित्रांकन (2) आध्यात्मिक कृतियों का चित्रांकन (3) वास्तविक आकृतियों का चित्रांकन । मुगल चित्रकला शैली में चित्रित प्रारंभिक और महत्वपूर्ण चित्र-संग्रह ' दास्तान-ए- अमीर-हफ्ता ' या हज्जानामा है । यह एक चित्रित पांडुलिपि है, जिसमें 1200 चित्र हैं । सभी चित्र स्थूल और चटकीले रंगों में कपडे ( लिनेन) पर चित्रित थे । हज्जानामा के चित्रों की ये विलक्षणताएँ हैं- विदेशी पेड़-एपी- और उनके रंग-बिरंगे फूल-पत्ते, स्थापत्य अलंकरण की बारीकियाँ, साजो-सामान आदि । चित्रों में एक अन्य दर्शनीय विशेषता यह है कि उनमें स्त्री आकृतियों और आलंकारिक तत्वों के रूप में विशिष्ट राजस्थानी या उत्तर भारतीय चित्रकला के लक्षण यaत्र-तaत्र दृष्टिगोचर होते हैं । इस प्रकार ऐतिहासिक हस्तलिपि के विवरण अकबर की चित्रशाला के विशेष योगदान बन गए । इसके अंतर्गत तारीख-ए- अली, जामी-उत-तवारीख, दारानामा, शाहनामा, तैमूर नामा और बाबरनामा प्रमुख थे । इसी क्रम में अकबर के दरबारी चित्रकारों ने निजामी के खम्सा खादी के गुलिस्ताँ, हफीज के दीवान और जामी के बहारिस्तान नामक आख्यानों की प्रधान घटनाओं को चित्रों से अलंकृत किया । आध्यात्मिक प्रकार के चित्रणों में अकबर के शासनकाल में बने चित्रों में रज्जनामा, रामायण, योग वशिष्ठ और नफहत-उल-उन्स प्रमुख थे । अकबर ने वास्तविक आकृतियों के चित्रण को भी प्रोत्साहित किया ।
अकबर के आदेश पर चित्रकारों ने उसके दरबार के सभी प्रमुख व्यक्तियों की प्रतिकृति को चित्रित किया । इसका बाद में राजपूत चित्रकला पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा ।
अकबरकालीन प्रमुख चित्रकार : अकबर ने लगभग 150 चित्रकारों का संरक्षण दिया । अबुल फजल ने अपने आईने-अकबरी में प्रमुख चित्रकारों के बारे में उल्लेख किया है । इन चित्रकारों में अधिकांशत: हिंदू थे । जैसे-दसर्वत, बसावन, केशव, लाल, मुकुन्द, मिशकिन, फारुख कलमक, जगन, महेश आदि । ये कलाकार भारत के विभिन्न क्षेत्रों से बुलाए गए थे । जैसे- ग्वालियर, गुजरात, लाहौर, कश्मीर, मालवा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि । इन चित्रकारों में दसवंत सर्वश्रेष्ठ चित्रकार था । बसावन भी एक प्रमुख चित्रकार था और चित्रकला की सभी शाखाओं में रेखांकन में, रंगों के प्रयोग में, छवि-चित्रकारी में और भू-दृश्यों के चित्रांकन आदि में सिद्धहस्त था । इसी तरह, मिस्कीन ने भारतीय चित्रकला शैली का यूरोपीय चित्रकला के साथ समायोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
चित्रकला शैली: अकबरकालीन प्रारंभिक चित्रकला पर फारसी कला-शैली का गहरा प्रभाव था, विशेषकर मीर सैयद अली और अचूस्समद के निर्देशन में बने चित्रों में । इनमें सुलेखीय रेखा-चित्रों का कुशल प्रयोग किया गया, जिनमें चमकीले एनेमल सदृश रंग भरे गए । किन्तु, आगे चलकर भारतीय जीवन से जुडे प्रसंग तथा प्राकृतिक दृश्य चित्रकारी के प्रधान विषय बन गए और उसे फारसी प्रभाव से मुक्त किया गया । भारतीय रंगों का जैसे मयूरी, नीले और भारतीय माल का उपयोग अधिक किया जानेलगा । सबसे बड़ी बात यह हुई कि फारसी शैली के सपाटपन का स्थान भारतीय कूची की गोलाई ने ले लिया, जिससे चित्रों में त्रिविमियतता आई। अकबर के शासनकाल के अंतिम चरण में मुगल चित्रकला पर यूरोपीय चित्रकला शैली का प्रभाव पड़ा वस्तुत: अकबर के विशेष निमंत्रण पर मुगल दरबार में आए मिशनरी पादरियों ने अन्य वस्तुओं के साथ ईसाई धर्म विषयक यूरोपीय चित्रों की नक्काशी की प्रतिलिपियां भी पादशाह को भेट की । अकबर ने इस नवीन यूरोपीय चित्रकला शैली में अभिरुचि ली। फलत : अकबरी चित्रकारों ने यूरोपीय नक्काशी के रेखांकनों और अन्य विवरणों की नकलें उतार कर उनमें ठेठ मुगलिया रंग लाल, पीले, हरे आदि रंग भरे । परिणामस्वरूप भारतीय-यूरोपीय तकनीक की अनोखी और विचित्र मिश्रण वाली कृर्तियाँ तैयार हुईं। आगे चलकर, मुगल चित्रकारों ने यूरोपीय आकृतियों और दृश्यों को जैसे- यूरोपीय नगर, स्त्री-पुरुष, भूदृश्यों आदि को अपने चित्रों में यत्र तत्र प्रयुक्त किया । साथ ही, इन्होंने यूरोपीय छायांकन, प्रतिरूपण और दृश्य विधान की तकनीक में पर्याप्त सुधार कर लिया । इस प्रभाव के फलस्वरूप चित्र में दूर दिखने वाली आकृतियों को छोटा दर्शाने के सिद्धांत को अपनाया गया। इससे आकृतियाँ अपने सही परिप्रेक्ष्य में सामने आती थीं ।
जहाँगीर कालीन चित्रकला की प्रमुख धाराएँ :
जहाँगीर के अधीन मुगल चित्रकारी अपनी पराकाष्ठा पर पहुंची । जहाँगीर की दृष्टि पारखी थी । मुगल चित्रकारी में यह परंपरा थी कि एक ही चित्र में लोगों की आकृतियों के विभिन्न अवयवों का चित्रण अलग-अलग चित्रकार करते थे । अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहाँगीरी में जहाँगीर यह दावा करता है कि वह किसी भी चित्र में अलग- अलग चित्रकारों के योगदान की पहचान कर सकता है ।
जहाँगीर कालीन चित्रकला: छवि चित्र, प्राकृतिक दृश्यों वाले चित्र, यूरोपीय लक्षण कला के रेखाचित्र, प्रतिलिपियों के मुरक्के (एलबम) प्रतिमापरक चित्रकारी । आरंभ में (गद्दी नशीनी से पूर्व और उसके कुछ समय पश्चात तक) जहांगीरकालीन चित्रकारी भी ऐतिहासिक ग्रंथ की विषयवस्तु से और अल्पमात्रा में छवि चित्रकारी से संबद्ध थी, किन्तु आगे चलकर उसमें छवि चित्रकारी के प्रति अधिक रुझान बढ़ा । उसने शाही परिवार के सदस्यों के, दरबार के उच्च पदाधिकारियों के, धर्म, साहित्य, संगीत, कला आदि विषय- क्षेत्रों से संबंधित महत्वपूर्ण व्यक्तियों के छवि-चित्र बनवाने शुरू किए । यहाँ तक कि उसने अपने अग्रणी चित्रकार बिशनदास को फारस के शाह के उसके अमीरों के तथा उसके परिजनों के यथारूप छवि-चित्र बनाकर लाने के लिए भेजा । ये चित्र अधिकतर मानवाकार वाले और खडे व्यक्तियों के हैं, जिनके चेहरे का रुख या तो दोनों में से किसी एक ओर वाला है या तीन-चौथाई देखा जा सकता है । पृष्ठभूमि एकरंगी है । आरंभ में मनोहर, नन्हा और फारुख बेग को छवि-चित्र तैयार करने का काम सौंपा गया, किन्तु बाद में मनोहर, दौलत, अबुल हसन और बिशनदास ने अधिकतर एकल और सामूहिक छवि-चित्रों का निर्माण किया । प्रकृति के प्रति सम्राट के अत्यधिक प्रेम के परिणामस्वरूप एक नए प्रकार के चित्रण शैली का आरंभ हुआ । उसके चित्रकार उसके साथ भ्रमण पर जाया करते थे और सम्राट् उनको उन सुंदर फूलों पौधों पक्षियों एवं पशुओं के चित्र बनाने को कहता था, जो उसे पसंद आते थे । इस तरह के अनेक चित्रों का अलंकरण उसकी आत्मकथा तुजुक-ए-जहाँगीरी में संकलित है । जहाँगीरकालीन चित्रकला में यूरोपीय प्रभाव कालांतर में निरंतर बढ़ता गया । इसके फलस्वरूप चित्रकारों ने अनेक यूरोपीय धार्मिक आधार-विषयों (मोटिफ) और प्रतीकों को मुख्यत : धार्मिक प्रवृत्ति वाले जैसे- चेरब (देवदूत सदृश्य सुंदर शिशु), स्वर्ग का पक्षी, ताप आदि को समायोजित किया गया । इसी तरह, अनेक ईसाई विषयों के चित्र, जैसे ईशु का जन्म, कुमारी मरियम और शिशु यीशु, विभिन्न संतों के शहीद होने के चित्र आदि मुगल चित्रकारों ने एकत्रित किए और उसकी नकलें उतारीं । जहांगीर के काल में मुरक्के ( एलबम) बनाने की शैली भी विकसित हुई । जहाँगीर ने समान आकार ( ४०-२४ सेमी.) के गढे हुए चित्रों से बने मुरक्का ( अलबम) बनाने का आदेश दिया । 1618 ई. में पूर्ण किए गए प्रत्येक पन्ने के एक तरफ एक या अनेक चित्रण होते थे और दूसरी ओर अत्युत्तम सुलेख होते थे । चित्रों के चारों ओर हाशिये में फूलों और पशुओं के चित्र बनाए जाते थे और इन चित्रणों को सुंदरतापूर्वक मढू दिया जाता था । हासियों की सजावट करने का विचार 1570 ई. में ईरान से भारत आया, लेकिन इसने जहाँगीर के शासन काल में चरमोत्कर्ष प्राप्त किया । जहाँगीर के उत्तरवर्ती शासनकाल में प्रतिमापरक चित्रकारी आरंभ हुई ।
अबुल हसन, विचित्र, हशीम आदि जहाँगीरी चित्रकारों ने उन दिनों जो भत्य लघु-चित्र बनाए, उनमें पादशाह का महत्व अत्यंत बढ-चढाकर प्रदर्शित किया गया है, मानो वे प्रतीकात्मक रूप से पादशाह के राजनीतिक स्तर में आई गिरावट की भरपाई कर रहे हों । अपने आश्रय-दाता, पादशाह को देवताओं का दुलारा, अन्य शासकों के आदर का पात्र और प्रजा के प्यार तथा भय का आलंबन दिखा कर एक सर्वशक्तिमान हस्ती के रूप में चित्रित करने का यह तरीका युगल चित्रकला के विकास के एक नए स्वरूप का द्योतक है ।
जहांगीरकालीन चित्रकार: फारुख बेग, दौलत, मनोहर, बिशनदास, मंसूर, अबुल हसन आदि । जहांगीरी चित्रकारों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे- उस्ताद मैसूर और अबुल हसन । उनकी विशेषज्ञता का सम्मान करते हुए जहांगीर ने उन्हें नादिर-उल- अस और नादिरूज्जमा की उपाधि दी थी ।
शाहजहाँकालीन चित्रकला:
यद्यपि उसकी रुचि मुख्यत : स्थापत्य कला में थी, लेकिन उसने चित्रकला को निरंतर संरक्षण दिया । अपने अमीरों एवं शाही औरतों के साथ सम्राट का संन्यासियों एवं दरवेशों के पास भ्रमण, इस समय का प्रमुख विषय-वस्तु रहा । रात के अनेक दृश्यों को पहली बार इस अवधि में चित्रित किया गया । सूक्ष्म, पतले रेखाचित्रों से निर्मित एक नई तकनीक, जिसमें सुनहरे और पीले रंगों के प्रयोग द्वारा हल्का-सा रंग दिया गया, इस समय में प्रचलित हो गई और इसे स्याही कलम नाम दिया गया ।
औरंगजेबकालीन चित्रकला:
उसने किसी भी कला को संरक्षण नहीं दिया । संस्कृति की गतिशीलता नष्ट हो गई और अंतत: इसका अधोपतन हो गया । उसके काल के केवल कुछ तस्वीरों में उसे या तो शिकार करते हुए वृद्ध दाढ़ी वाले व्यक्ति या अपने हाथ में कुरान की पुस्तक लिए चित्रित किया गया है । औरंगजेब की चित्रकला के प्रति अरुचि के कारण अत्यन्त विकसित मुगल चित्रकला शैली का 17-18वीं शताब्दी में पूर्णत: पतन हो गया और मुगल चित्रकार संरक्षण की तलाश में राजस्थान और पर्वतीय राज्यों में आ गए । राजस्थान में राजपूत शैली का विभिन्न स्थानीय शैलियों जैसे कि कोटा, बूंदी, किशनगढ़, जयपुर आदि के रूप में विकास हुआ, जबकि पर्वतीय या पहाड़ी शैली का कांगड़ा और बैशाओली शैलियों के रूप में विकास हुआ ।
मुगल चित्रकारी की सीमाऍं/आलोचनाऍ :-
चित्रकला शैली सामाजिक यथार्थ से पूर्णत : विलग एक शाही या दरबारी शैली थी, जिसका आम लोगों से कोई सरोकार नहीं था और यह मुगल राजदरबार की चहारदीवारी तक ही सीमित रही ।